ज़िक्र नहीं कर सकता जिसका
फिकर उसी की रहती है
तलब नहीं कमजोरी थी वो
इसीलिए चुप रहती है।
छुप जाते है अक्सर गम भी,
खुशी के उन फव्बॉरो से,
अम्बर के आडम्बर से
जिनकी रौनक कम रहती है।
इस पर में क्यों व्यर्थ समय दूँ
जिस पर में एक भोझ मात्र हूँ
उस पर में क्यों भला त्रस्त हूँ
जिसको में एक प्रतिपेक्ष ज्ञात हूँ।
कीमत शब्दों की होती तो,
भाव भिवोर न होती मन से
रहती है जो सदा व्यथित अब,
कुंठित न होती तन से।
प्रखर हो रहे आवेग भी उसके,
उसको प्राप्त हो मोक्ष सदा,
यही है वर भी यही श्राप है
मेरा न हो स्पर्श कदा।
@प्रखर
फिकर उसी की रहती है
तलब नहीं कमजोरी थी वो
इसीलिए चुप रहती है।
छुप जाते है अक्सर गम भी,
खुशी के उन फव्बॉरो से,
अम्बर के आडम्बर से
जिनकी रौनक कम रहती है।
इस पर में क्यों व्यर्थ समय दूँ
जिस पर में एक भोझ मात्र हूँ
उस पर में क्यों भला त्रस्त हूँ
जिसको में एक प्रतिपेक्ष ज्ञात हूँ।
कीमत शब्दों की होती तो,
भाव भिवोर न होती मन से
रहती है जो सदा व्यथित अब,
कुंठित न होती तन से।
प्रखर हो रहे आवेग भी उसके,
उसको प्राप्त हो मोक्ष सदा,
यही है वर भी यही श्राप है
मेरा न हो स्पर्श कदा।
@प्रखर
These lines say it all..
ReplyDeleteइस पर में क्यों व्यर्थ समय दूँ
जिस पर में एक भोझ मात्र हूँ
उस पर में क्यों भला त्रस्त हूँ
जिसको में एक प्रतिपेक्ष ज्ञात हूँ।
Well written !!